Saturday, May 25, 2013

नक्सलवाद की जननी है कांग्रेस

नक्सलवाद की जननी है कांग्रेस 

आज छत्तीशगढ़ में अपने नेताओं पर हुए हमले के बाद कांग्रेस नक्सलवाद के नाम पर भले ही वहां की सर्कार को भंग करने की कोशिश करे असलियत यह है की इसके लिए एकमात्र वही जिम्मेवार है.देश में नक्सलवाद की जड़ें कांग्रेस ने ही मजबूत की और आज भी उसकी लचर नीति के चलते ही यह समस्या बढती जा रही है.नक्सली आन्दोलन बहले ही बंगाल से शुरू हुआ हो लेकिन बिहार में इसे फलने फूलने का मौका मिला.कांग्रेस की कुनीतियों ने ही इसे आगे बढाया,,1947 से 1975 तक बिहार में कांग्रेस की सत्ता रही, इसी बीच दलितों को सरकारी जमीन के पट्रेट तो दिए गए पर उस जमीन पर कोई दलित कब्जा नहीं कर सका इस की वजह यह रही कि मुख्यमंत्री व मंत्रिमंडल के दूसरे सदस्य उंची जाति के रहे। कुलमिलाकर कर्पूरी ठाकुर सरकार व उनका प्रशासन दलित विरोधी रहा।

अगर बिहार में गरीब व दलितों के साथ इनसानी बरताव किया जाता तो नक्सलवाद बिहार में नहीं पनपता ना ही बेवजह पुलिस वाले और सवर्ण मारे जाते। बिहार, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, ओड़िसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पं बंगाल, उत्तर प्रदेश में भी इस आंदोलन की आग न लगती। इन राज्यों में भी नक्सलियों का जोर उन इलाकों में ज्यादा रहा जहां आदिवासी व दलित बहुल है, जो बहुत ज्यादा गरीब हैं और सरकारों के द्वारा सताए गए है।

भारत की आजादी के 20 वर्ष बाद मई 1967 में पं बंगाल के गांव नक्सबाड़ी में गरीब आदिवासी, दलित व मजदूरों ने कम्युनिस्ट नेता स्व चारू मजूमदार व कानू सान्याल की अगुवाई में बड़े भूस्वामियों व सरकार के खिलाफ आंदोलन का बिगुल बजा दिया। इस समय आंदोलन की मुख्य वजह एक आदिवासी ने अपनी जमीन पर बोआई करने के लिए अदालत से आदेश ले लिया था। लेकिन बाहुबली भू-स्वामियों ने उसे अपनी जमीन पर बुआई नहीं करनी दी। शुरूआत में इस आंदोलन का मकसद गरीब लोगों को अपना हक दिलवाना था। नक्सलबाड़ी के बाद यह आंदोलन पं बंगाल के दूसरे गांवों व क्षेत्रों में भी पहुंच गया। गरीब आदिवासी दलित इस आंदोलन से बड़ी मात्रा में जुडते चले गए। पं बंगाल के दार्जलिंग जिले में बिहारी मजदूरों की संख्या बहुत ज्यादा थी। बिहार के दलित भी उंची जाति के सताए हुए थे।

धीेरे-धीरे बिहार में भी इस आंदोलन में अपनी जड़े जमा ली बिहार का उत्तरी क्षेत्र आदिवासी क्षेत्र है। जल-जंगल और जमीन ही इनके पेट भरने के मुख्य साधन है। यहां कोयला, लोहा, अभ्रक के बड़े-बड़े भंडार है इसलिए यहां की जमीनों को नेताओं और बाहुबली उंची जाति के लोगों ने हड़प् ली और मालामाल हो गए आदिवासी गरीब से नंग हो गया।

1973 के आसपास राजेन्द्र यादव व कल्याण मुखर्जी ने बिहार में नक्सलवादी आंदोलन के नाम से एक सर्वे किया जिस में गरीबों दलितों की दुर्दशा की हकीकत सामने आई। दबंग जाति के उत्पीड़न से पिछड़े वर्ग के लोग भी सताए जा रहे थे अगर इनके बच्चे उंची जाति के बच्चों के साथ पढ़ते तो उंची जाति के लड़के उनका उत्पीड़न करते और नंगा करके घुमाते थे गांव में, इसलिए पिछड़े वग्र के लोगों ने ‘‘त्रिवेणी संघ’’ बना लिया था इस संघ में दलितों के प्रति हमदर्दी दिखाई। नक्सलियों का बल पा कर दलित काम की मजदूरी मांगने लगे और जुल्मों के खिलाफ आवाज उठाने लगे।

गरीबों द्वारा मजदूरी मांगने और आवाज उठाने पर उंची जाति के लोगों ने इन्हें वर्ग शत्रु यानि नक्सलवादी कहने लगे पुलिस व प्रशासन हमेशा उंची जाति वालों की मददगार रहे किसी गांव में कोई घटना होने पर पुलिस गरीबों को नक्सली कह कर गोलि मार देते है। और इन्हें मुठभेड़ का नाम देकर पल्ला छुड़ा देते हैं। गरीबों को सबक सिखाने के लिए राजपूतों ने ‘‘रणवीर सेना’’ और ब्रह्मणों ने ऋषि सेना बना ली, इन सेनाओं के नौजवानों को हथियारों से लैस करने केलए प्रशासन ने खुलकर हथियारों के लाईंसेंस दिए और प्रशिक्षण के लिए शहरों व गांवों में प्रशिक्षण केंद्र खोले गए।

1976 में बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने भोजपूर के फायरिंग संेटर का उदघाटन किया था इन्होंने बड़ी संख्या में निर्दोष दलितों का कत्ल किया। कांग्रेस सरकार ने इस का पुरा समर्थन किया था दलितों की झोपड़ियां जलाई गई दलित लड़कियों व महिलाओं का सामुहिक बलात्कार किया और नौजवान दलित लड़कों को झुठे मुकदमों में जेल भिजवा दिया गया।

बिहार के लोगों को आज भी याद होगा कि 90 के दशक में इन सेनाओं ने ‘‘लक्ष्मण गुहा गांव के 139 दलितों को एक ही रात में मौत के घाट उतार दिया था। राजनीतिक दलों ने इस घटना का भरसक विरोध किया था। आरा जिले के सौनाटोला’’ गांव में दलितों मजदूरी द्वारा मजदूरी बढ़ाने के लिए आंदोलन किया स्वर्ण जाति के लोगों ने इसे नक्सली आंदोलन बता कर कई दलितों को जेल भिजवादीया। तत्कालिन डीएम कृष्णा सिंह ने गांव के राजदूतों को कहां ‘‘आप लोगों के लिए गर्व की बात है कि राजपूत हो कर भी आप मुट्ठीभर दलितों को शांत नहीं कर सकते।

बिहार से यह आंदोलन छत्तीसगढ़ के बस्तर में पहुंचा बस्तर के आदिवासी बहुल गरीब होने के कारण कारोबारियों के शोषण के भी शिकार है आजादी से पहले तेंदुपत्ता, लाख, शोप, चिरोजी, महुआ आदि वस्तु पर आदिवासियों का हक था लेकिन अब जंगल की उपज पर दलालों व पूंजीपतियों का कब्जा है इन्हें मजदूरी नाम मात्र की दि जाती है। आदिवासियों की जिंदगी जंगल और उस से मिलने वाली संपदा पर ही निर्भर है। सब कुछ छिन जाने के बाद आदिवासी हिंसक हो गए और नक्सलवाद का रास्ता अपनाया।

जो हाल बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ का है वही हाल आंध्र प्रदेश, ओडिसा कर्नाटक, महाराष्ट्र, पं बंगाल और यूपी का है पूरी आदिवासी इलाकों को सरकार व पंूजीपति लोग लुट रहे है आदिवासियों की तरक्की के नाम पर राज्य व केन्द्र सरकारें हर साल अरबो-खरबों का घोटाला कर रही है। देश की सभी पार्टियां दलितों की उन्नती की बात तो करती है पर काम नहीं करती। सरकार भी हिंसा के बदले हिंसा का सहारा ले रही है न राज्य सरकारों व केन्द्र की सरकारों ने नक्सलवाद की जड़ तक जाने की रती भर कोशिश नहीं की वे केवल पाच सितारा होटलों से घोषणाए करती है और कुछ नहीं केन्द्र सरकार यानी मनमोहन सरकार डेड लाख अर्धसैनिक बलों को तैनात कर के सोचती है कि हम इस पर पार पा लेंगे? जितना पैसा इल बलों की तैनाती पर खर्च किया जा रहा है उतना पैसा इन आदिवासीयों के विकाश के लिए लगाया जाता तो समस्या का हल निकल जाता माओवादी व नक्सलवादी न तो विदेशी है न बंगलादेशी जो पांच करोड़ हमारे देश में भरे हुए है और न ही आतंकवादी वे इसी देश के वासी है जो केवल और केवल अपने हक के लिए लड़ रहे है। इनको मारने का मतलब है अपने ही लोगों को मारना जिसे उचित नहीं कहा जा सकता भले ही इन का रास्ता गलत हो। दरअसल दलित आदिवासियों के दिलों में जलालत, जल्म, सामाजिक व मानसिक असमानता की आग धधक रही है यह ज्वालामुखी बन कर नक्सलवाद के रूप में फुट रहा हैं

आदिवासी दलितों को समान अधिकार दिया जाए, बेरोजगार युवकों को रोजगार दिया जाए। शिक्षा, स्वास्थ्य व बुनियादी जरूरते पूरी हो तो उनके दिलों में फुट रहे ज्वालामुखी शांत हो जाएगी और वे नक्सलवाद का रास्ता छोड़ देंगे।

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