Saturday, May 4, 2013

वाह रे कांग्रेस तेरी महिमा अपरम्पार.....करती रह ऐसे ही नरसंहार

भारत में १९५० से लेकर १९९५ तक में छोटे बड़े मिला कर ११९४ दंगे हुए

पर जो दिल्ली में ३१ अक्तूबर १९८४ को इंदिरा गाँधी के मरने के बाद दंगा चला वो अब तक का सबसे वीभत्स सामूहिक हत्याकांड था|

ये वीभत्स हत्याकांड उस जनसमूह के साथ हुआ था जिसने कुछ समय पहले देश के बंटवारे का दंश झेला था लेकिन किसी ने उस जन समूह की सुध नहीं ली थी तथा यही जन समूह जिसे हम सिख कहते हैं

भारतीय सेना में सबसे ज्यादा बढ़ चढ़ कर आते हैं और इनके नाम से सिख रेजिमेंट तक है जिसने एक समय भारत की सीमा को लाहौर तक खिंच दिया था|

गाँधी के मरने के बाद दूरदर्शन ने राजीव गाँधी का साक्क्षातकार लिया उ जिसमे

राजीव गाँधी ने कहा की "जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिल जाती है और छोटे पौधे कुचल जाते हैं|"


एक प्रधानमंत्री के द्वारा दिया गया ये अब तक का सबसे शर्मनाक बयान था और इस बयान ने इस छिटपुट हो रही हत्यायों को एक वीभत्स सामूहिक हत्याकांड में तब्दील कर दिया क्यूंकि देश का तत्कालीन प्रधानमंत्री यही चाहता था|

राजीव गाँधी के इस बयान से नेताओं को कमाने का और राजीव गाँधी के सानिध्य में आने का मौका दिख गया|

इसमें थे सांसद "सज्जन कुमार", तत्कालीन कैबिनेट मंत्री "जगदीश टाइटलर", तत्कालीन कैबिनेट मंत्री "हरकिशन लाल भगत" में तो आतंरिक होड़ मच गई की कौन ज्यादा हत्याएं करवाता है

(जैसे उनको हत्याएं करवाने का इनाम मिलने वाला था)|

इन तीनो नेताओं ने अपने गुर्गों को यहाँ तक कह दिया था की "एक पगड़ी लाने पर १००० रूपया और एक सरदार का घर जलने पर १०००० रूपया"|





इन तीनो नेताओं को इन हत्यायों का इनाम भी मिला की ये लोग सालों तक केंद्रीय मंत्री रहे और दंगे के गवाहों को मौत के घाट उतरवाते रहे|

जो भी अगर ये कहता हुआ मिलता है की दिल्ली का ये सामूहिक नरसंहार सरकार के द्वारा प्रायोजित नहीं था तो एक घटना उन लोगो के लिए है की एक सिख जिसका नाम "अमर सिंह" था वो इस नरसंहार से बच गया| वो सिख बचा कैसे तो उसके हिन्दू पडोसी ने उसे अपने घर में शरण दिया और जब कत्लेआम मचाती हुई भीड़ अमर सिंह नाम के सिख को ढुंढते हुए पहुंची तो उस हिन्दू ने ये बोल दिया की अमर सिंह मर चूका है|
 पर उस कातिल भीड़ को इससे संतोष नहीं हुआ और वो अमर सिंह का मृत शरीर देखने की बात करने लगे तब उस हिन्दू ने कहा की उसके शरीर को और लोग उठा कर ले गए हैं| ये सुन कर उस समय तो भीड़ चली गई पर थोड़े समय में फिर पहुंची और उस हिन्दू को एक लिस्ट दिखाते हुए कहा की इस लिस्ट के मुताबिक अमर सिंह का मरा हुआ शरीर अभी तक किसी ने भी नहीं उठाया है|

अब ऐसी लिस्ट बन कहाँ रही थी जिसमे चुन-चुन कर सिखों को मारा जा रहा था और उनके मरे हुए शरीर को किसको दिखाया जा रहा था और कौन बना रहा था वो लिस्ट|

ये बात सोचने वाली है! लेकिन इस घटना से पता चल जाता है की ये सामूहिक नरसंहार कितने व्यवस्थित ढंग से चलाया जा रहा था|

जब इस महा नरसंहार की जांच की कमान CBI के आर० एस० चीमा को दिया गया तब चीमा जी ने जो बताया वो देख कर ये पूर्ण रूप से कहा जा सकता है की कांग्रेस नाम की सरकार उस समय एक आतंकवादी जैसा व्यव्हार कर रही थी और दिल्ली की पुलिस को अपने इशारे पर नचा रही थी| चीमा ने उस समय के एडिसनल जज जे० आर० आर्यन को बताया की "दिल्ली की पुलिस एक पूर्व-नियोजित तरीके से व्यव्हार कर रही थी दंगे के समय और दंगे पर अपनी ऑंखें बंद किये बैठी थी| उस नरसंहार के दौरान १५० दंगे की वारदातों के बारे में पुलिस को कम्प्लेन किया गया लेकिन पहली ५ वारदातें जो छोटी थीं और शुरुवात की थीं उन्हें ही एफ़० आ० आर० में लिखा गया और इसका किसी भी मीडिया में कोई उल्लेख नहीं है|"
 पर हद तो तब हो गई जब इतने के बाद भी जो दाग नेताओं के ऊपर लगे थे और उनके खिलाफ कोर्ट में सुनवाई हो रही थी उसमे कोर्ट ने ऐसा साक्ष्य माँगा की सुन कर यही कहा जा सकता है की भारत की अदालतें वही फैसला सुनती हैं जो सरकार में बैठे लोग चाहते हैं| कोर्ट ने CBI से माँगा की जिन नेताओं पर आरोप लगे हैं उनके खिलाफ आपके पास क्या सुबूत हैं गवाहों के अलावा, कोई न्यूज़ पेपर की कटिंग, कोई भी मीडिया की खबर कुछ और लाइए| जब न्यूज़ पेपर में ही खबर में नाम आने से आरोप सिद्ध होता है तो छोटे लोगों को तो न्याय मिलने से रहा क्यूंकि उनके पास तो सिर्फ चंद गवाह होते हैं लेकिन पेपर की कटिंग नहीं होती है|
अब इस सामूहिक हत्याकांड के बारे में जितना लिखे उतना कम ही लगेगा क्युकी ये इतना जतन से जो करवाया गया था और आज भी इसमें बर्बाद लोग जब भारत की अदालत से त्रस्त हो और भारत छोड़ अमेरिका में शरण लिए उन लोगों ने अमेरिका में कांग्रेस के खिलाफ और इस नरसंहार के खिलाफ केस किया जिसकी सुनवाई आने वाली २७ जून २०१२ को हुआ| पर कांग्रेस का भांडपन तो देखिये कांग्रेस ने अमेरिका की सरकार से ये कहा की जो केस अमेरिका की अदालत में कांग्रेस के खिलाफ चल रहा है वो चुकी २५ साल पुराना है अतः इस केस को ख़ारिज कर दिया जाये|

 इस केस को ख़ारिज करने के लिए देखिये कैसे कांग्रेस के सांसद मोतीलाल वोरा ने भांडों वाली दलील दी की, "कोई भी समन या कम्प्लेन इंडियन नेशनल कांग्रेस को नहीं मिला है अतः इस केस को ख़ारिज करें|"
 इससे २ कदम आगे बढ़ कर इस वोरा ने ये कहा अपने एफिडेविड में कहा की इंडियन नेशनल कांग्रेस और इंडियन नेशनल ओवरसीज कांग्रेस दोनों अलग-अलग एंटिटी हैं और दोनों का कोई सम्बन्ध नहीं है क्यूंकि ये छोटा बच्चा वोरा का नहीं था।
 पि० चिदंबरम २५ जून २०११ को १९८४ में हुए सिख नरसंहार के ऊपर बोलते हुए कहा की, "ये समय है की हम १९८४ की उस घटना को भूल एक नए भारत का निर्माण करें|" अब जरा कोई इस पर बोलेगा की ये क्या था क्यूंकि खुद तो ये लुंगी उठा-उठा कर गुजरात के २००२ के दंगे पर भौकते हुए दिख जाता है|
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तो ये है इस खुनी कांग्रेस का दोहरा चरित्र की, "खुद करे तो रासलीला और कहीं किसी घटना का जवाब मिले तो वो वह्सीपना|"
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वाह रे कांग्रेस तेरी महिमा अपरम्पार.....करती रह ऐसे ही नरसंहार||
 १९८४ का दिल्ली का सिख विरोधी दंगा: ३१ अक्तूबर १९८४ से ३ नवम्बर १९८४ के बिच में एक दंगा हुआ जिसमे करीब ५००० लोगो की आहुति ली हमारे इस कांग्रेस ने| इन मरे लोगो में बड़े बूढ़े, औरते, छोटे बच्चे तक शामिल थे| ये दंगा पूरी तरह एक तरफ़ा दंगा था जिसे उस समय की सरकार ने कुछ भी न करके बढ़ावा दिया| और इतने पर ही नहीं माने हमारे तत्कालीन कांग्रेस सत्ताधारी तो भावनाओ को बढ़ावा देने के लिए दिया एक बयान जो शायद एक गाँव का प्रधान भी नहीं देता पर हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री और "भारत रत्न" राजीव गाँधी ने एक बोट पार्टी में १९ नवम्बर को बयान दिया की ,

“Some riots took place in the country following the murder of Indira Ji. We know the people were very angry and for a few days it seemed that India had been shaken. But, when a mighty tree falls, it is only natural that the earth around it does shake a little.” "कुछ दंगे हुए हमारे देश में इंदिरा जी की हत्या के चलते| हम जानते हैं की कुछ लोग कितने गुस्से में हैं और इसके चलते पूरा भारत हिल गया| पर जब एक बड़ा पेंड गिरता है तो उसके आस पास की धरती हिल ही जाती है"|

क्या असहाय और निरपराध लोगो का मरना हमारे तत्कालीन भारत रत्न और प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के लिए एक छोटा सा हिलना मात्र था| पर आज तक क्या हुआ उस दंगे में? कितने लोगो को हमारे कोर्ट ने सजा सुने? क्या ऐसे भाषणों के चलते देश की जनता की भावना नहीं भड़की थी? क्या राजीव गाँधी पर कोर्ट ने आज तक ऐसे भड़काऊ भाषण और दंगा बढ़ाने के लिए राजीव गाँधी पर इल्जाम शाबित नहीं होता है?
१९६४ के राउरकेला और जमशेदपुर के दंगे में २००० मासूम लोगो ने अपनी जान गँवाई और उस समय कांग्रेस की सरकार थी वहां| १९६७ के रांची के दंगे में २०० लोगो को बलि दी गई फिर से कांग्रेस की सत्ता| १९६९ का अहमदाबाद का दंगा भी कांग्रेस के राज्य में २०० लोगो को खा गया| इसके अलावा भी कांग्रेस के ही राज्य में कई और बड़े दंगे हुए जैसे की १९८० का मोरादाबाद का दंगा जो २००० लोगो को खा गया,
१८ फ़रवरी १९८३ में हुए नेल्ली के सामूहिक हत्याकांड के बारे में आप सभी जानते ही होंगे पर फिर भी मै उस बारे में लिखने की कोशिस करता हु| १८ फ़रवरी १९८३ को नेल्ली में हुए पूर्वनियोजित हत्याकांड में जबकि आसाम में राष्ट्रपति शासन में था और सीधे हमारी "भारत रत्न" माननीय इंदिरा गाँधी उस समय आसाम को देख रही थी तभी एक पूर्वनियोजित हत्याकांड में करीब ६००० लोग मरे| उस समय हमारी "भारत रत्न" इंदिरा गाँधी ने वक्तव्य दिया की :

“One had to let such events take their own course before stepping in.” "हमें ऐसी घटनाओ को होने देना अपने तरीके से होने देना चाहिए इस घटना में उतरने से पहले"|
 विडंबना की बात है की कथित बुद्धिजीवियों के साथ भाजपा के दम पर सत्तासीन नीतीश कुमार जैसे नेता भी मोदी जी को साम्प्रदायिक कहने लगे हैं .नीतीश जैसे गिरगिट नेताओं का इतिहास भी यहाँ जानना जरुरी हो गया है .नरेन्द्र मोदी पर कम्युनल होने का सबसे बड़ा जो आरोप है उस आरोप का मापदंड है कि उनके कार्यकाल में २००२ में गुजरात में दंगे हुए। यदि किसी के कार्यकाल में दंगे होने से उक्त शासक/ प्रशासक सांप्रदायिक माना जाना चाहिए तब तो नीतिश कुमार के राजनीतिक गुरु कर्पूरी ठाकुर को भी घोर सांप्रदायिक करार देना पड़ेगा। यदि किसी प्रदेश में दंगे होने से उस प्रदेश की सरकार की राहत राशि को भी सांप्रदायिक प्रदेश में वर्गीकरण किया जाएगा तो गुजरात से पहले बिहार को अस्पृश्य कह कर सांप्रदायिक प्रदेश की पांत में बैठाना पड़ेगा। इस देश में आजादी के बाद पहला ही हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगा अविभाजित बिहार में हुआ था। तब कृष्ण बल्लभ सहाय बिहार के मुख्यमंत्री थे। आज दिन तक किसी बिहारी विद्वान ने कृष्ण बल्लभ सहाय को सांप्रदायिक नहीं कहा है। जो कहते हैं कि सांप्रदायिकता की सबसे बड़ी दवा विकास है उनको भी बिहार प्रांत के जमशेदपुर के १९६४ और १९७९ के दंगों का इतिहास पढ़ लेना चाहिए।

 देखो दंगों का इतिहास!
जमशेदपुर हिंदुस्तान का पहला पूर्ण सुनियोजित शहर है। जमशेदपुर का विकास कितना सुनियोजित है इसका अंदाज आप इसी तथ्य से लगा सकते हैं कि वहां आज भी महापालिका के गठन की आवश्यकता नहीं पड़ी है। १९६४ में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में हिंदुओं के भारी नरसंहार से शरणार्थियों का दबाव पड़ा। जमशेदपुर में हिंदू-मुस्लिम दंगे शुरू हुए जो राउरकेला, कोलकाता तक फैल गए। इसी जमशेदपुर में १९७९ में फिर दंगे हुए तब तो बिहार में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार थी। १९७७ में ही नीतिश कुमार पहली बार जनता पार्टी के टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़कर हारे थे। तब उन्हीं की पार्टी से जमशेदपुर (पूर्व) से दीनानाथ पांडे विधायक चुने गए थे। जमशेदपुर दंगों की जांच के लिए गठित जितेंद्र नारायण आयोग ने जनता पार्टी विधायक दीनानाथ पांडे को दंगे भड़काने का दोषी करार दिया था। यदि माया कोडनानी के दंगाई करार होने से नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक माने जाने चाहिए तो दीनानाथ पांडे की सांप्रदायिकता के लिए कर्पूरी ठाकुर को दोषी क्यों नहीं मानना चाहिए? कर्पूरी ठाकुर जनता पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के पहले जन क्रांति दल के नेता थे। १९६७ में रांची-हटिया का हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगा जन क्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा के कार्यकाल में हुआ था। महामाया प्रसाद सिन्हा को वर्तमान गांधी मैदान जिसका नाम तब बांकीपुर मैदान हुआ करता था, पर १५ अगस्त १९४७ को तिरंगा झंडा फहराने का गौरव प्रदान किया गया था।
‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान मुल्ला भागो पाकिस्तान!’
नीतिश कुमार को कर्पूरी ठाकुर का चेला माना जाता है और ठाकुर के राजनीतिक संरक्षक महामाया प्रसाद सिन्हा थे। निश्चित है कि नीतिश कुमार के अंतर्मन में महामाया प्रसाद सिन्हा के सेकुलरवाद में कोई संदेह नहीं होगा। १९८९ में बिहार में भागलपुर दंगा हुआ। नीतिश कुमार नहीं भूले होंगे कि इस दंगे में बिहार की मिलिट्री पुलिस खुद नारे लगा रही थी- ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान, मुल्ला भागो पाकिस्तान!’ दंगाइयों ने औरंगजेब काल की हसना मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था। पुलिस अफसर रामचंदर सिंह के नेतृत्व में चंदेरी के एक तालाब में ६४ लाशें गाड़ दी गई थीं। १६ लोगों की लाशों को गाड़कर उस पर पत्ता गोभी उगा दी गई थी। तब मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा थे जिनके नीतिश कुमार राजनीतिक करीबी करार दिए जाते रहे हैं। सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने कालांतर में अपनी जीवनी ‘मेरी यादें, मेरी भूलें’ में दंगों का दोष अपने पूर्ववर्ती कांग्रेसी मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर लगाया था। नीतिश कुमार ने न कभी भागवत झा आजाद और न ही सत्येंद्र नारायण सिन्हा को सांप्रदायिक माना।
 नेल्ली दंगा
कांग्रेस की भूमिका पर एक बार फिर चर्चा कर लेते हैं .१९८३ का असम का नेल्ली दंगा कौन भूल सकता है? सिर्फ ६ घंटे में ५००० लोगों को सांप्रदायिक दंगे में कत्ल कर दिया गया था। तब असम में केपीएस गिल जैसा अफसर उस इलाके का पुलिस महानिरीक्षक था। केपीएस गिल की सिफारिश पर ही ‘आसू’ के विरोध के बावजूद नेल्ली में चुनाव कराए गए थे। मतदान के लिए लोग निकलते तब तक उन गांवों को घेर कर कब्रिस्तान बना दिया गया। तब हितेश्वर सैकिया असम के मुख्यमंत्री थे। साल भर के भीतर दंगों की जांच के लिए गठित तिवारी आयोग ने अपनी सिफारिशें हितेश्वर सैकिया सरकार को सौंप दी। सैकिया ने कभी उस रिपोर्ट को प्रकाशित तक नहीं होने दिया। आज दिन तक किसी ने हितेश्वर सैकिया को ‘यमराज’ की संज्ञा नहीं दी। उलटे १९८५ में राजीव गांधी ने तिवारी रिपोर्ट में दोषी माने गए ‘आसू’ नामक संगठन से असम समझौता किया। इस समझौते के तहत नेल्ली दंगे में दर्ज सारे मामलों को तत्काल बंद करा दिया गया। सेकुलर मीडिया मार्तंडों! कृपया बताओ, हितेश्वर सैकिया और राजीव गांधी किस मापदंड पर सेकुलर हैं?

दंगे और देसाई
अब हम थोड़ी बात कर लें उस गुजरात के दंगों के इतिहास की जिसके संविधान सम्मत मुख्यमंत्री को मुसलमान और सेकुलर वैश्विक अस्पृश्य बनाने पर आमादा हैं। आजादी के बाद गुजरात के अमदाबाद शहर में पहली बार दंगा १९६९ में हुआ। २००२ का दंगा तो गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में लगाई गई आग की प्रतिक्रिया में हुआ। गोधरा से उठी ७२ कारसेवकों की खाक लाशों पर प्रतिक्रिया को स्वाभाविक माना जा सकता है। १९६९ में जेरूसलेम में अल-अक्सा मस्जिद में आग लगी थी। प्रतिक्रिया में भड़क गए थे अमदाबाद के मुसलमान। अमदाबाद में एक हिंदू मंदिर को मुसलमानों ने जला दिया। तब गुजरात में मोरारजी देसाई के चहेते हितेंद्र देसाई मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थे। कांग्रेस दो फाड़ हो चुकी थी। मोरारजी कांग्रेस (ओ) में थे, उनके चहेते हितेंद्र देसाई को अपदस्थ करने के लिए इंदिरावादी कांग्रेसियों ने दंगे को हवा दे दी। १९६९ के अमदाबाद दंगों की जांच के लिए गठित जस्टिस जगन मोहन रेड्डी आयोग की रिपोर्ट कहती है कि इन दंगों में पुलिस लाइन के बगल में मौजूद मुहल्लों को भी जलाकर खाक कर दिया गया था। ३७ मस्जिदें, ६० दरगाहें और ६ कब्रिस्तान पूंâक दिए गए थे। ३ मंदिर भी खाक हुए थे। हितेंद्र देसाई को किसी ने जिम्मेदार नहीं करार दिया। यह तो रहा हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों का इतिहास।

सांप्रदायिकता का पुरस्कार
३१ अक्टूबर १९८४ को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दंगे कराने वाले एचकेएल भगत को केन्द्र में सूचना एवं प्रसारण का काबीना मंत्री इनाम के तौर पर बनाया गया। ललित माकन के पुत्र अजय माकन आज तक मंत्रिपद से पुरस्कृत हैं। जगदीश टाइटलर वेंâद्रीय मंत्री और सज्जन कुमार सांसद रहे। यह सब सांप्रदायिकता के पुरस्कार स्वरूप ही हासिल हुआ। वेद मारवाह आयोग, रंगनाथ मिश्रा आयोग, कपूर मित्तल समिति, जैन बनर्जी समिति, पोट्टी रोशा समिति, जैन अग्रवाल समिति, आहूजा समिति, नरूला समिति और नानावटी आयोग की जांच रिपोर्ट के बाद भी किसी पर कार्रवाई नहीं हुई। २००७ में सीबीआई की रिपोर्ट में फर्जी क्लीन चिट देकर जगदीश टाइटलर को उपकृत करने वाले अधिकारी अश्विनी कुमार को प्रियंका गांधी की सिफारिश पर सीबीआई का निदेशक बनाया जाता है। यही अश्विनी कुमार गांधी परिवार की सेवा के बदले में सीबीआई निदेशक पद से निवृत्ति के बाद पहले राज्यपाल नियुक्त होने का मौका पाते हैं। आज कल ये नागालैंड के राज्यपाल हैं। क्या सांप्रदायिकता के इस कोण पर बहस करना जरूरी नहीं?



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