Thursday, February 28, 2013

कश्मीर का सच




कश्मीर का सच :जब षड्यंत्रों से बात नहीं बनी तो पाकिस्तान ने बल प्रयोग
द्वारा कश्मीर को हथियाने की कोशिश की तथा २२ अक्तूबर, १९४७ को सेना के साथ कबाइलियों
ने मुजफ्फराबाद की ओर कूच किया। लेकिन कश्मीर के नए प्रधानमंत्री
मेहरचन्द्र महाजन के बार-बार सहायता के अनुरोध पर भी भारत सरकार उदासीन
रही। भारत सरकार के गुप्तचर विभाग ने भी इस सन्दर्भ में कोई पूर्व
जानकारी नहीं दी। कश्मीर के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने बिना वर्दी के
२५० जवानों के साथ पाकिस्तान की सेना को रोकने की कोशिश की तथा वे सभी
वीरगति को प्राप्त हुए। आखिर २४ अक्तूबर को माउन्टबेटन ने "सुरक्षा
कमेटी" की बैठक की। परन्तु बैठक में महाराजा को किसी भी प्रकार की सहायता
देने का निर्णय नहीं किया गया। २६ अक्तूबर को पुन: कमेटी की बैठक हुई।
अध्यक्ष माउन्टबेटन अब भी महाराजा के हस्ताक्षर सहित विलय प्राप्त न होने
तक किसी सहायता के पक्ष में नहीं थे। आखिरकार २६ अक्तूबर को सरदार पटेल
ने अपने सचिव वी.पी. मेनन को महाराजा के हस्ताक्षर युक्त विलय दस्तावेज
लाने को कहा। सरदार पटेल स्वयं वापसी में वी.पी. मेनन से मिलने हवाई
अड्डे पहुंचे। विलय पत्र मिलने के बाद २७ अक्तूबर को हवाई जहाज द्वारा
श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई।

'दूसरे, जब भारत की विजय-वाहिनी सेनाएं कबाइलियों को खदेड़ रही थीं। सात
नवम्बर को बारहमूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु पं. नेहरू
ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर तुरन्त युद्ध विराम कर दिया। परिणामस्वरूप
कश्मीर का एक तिहाई भाग जिसमें मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि
क्षेत्र आते हैं, पाकिस्तान के पास रह गए, जो आज भी "आजाद कश्मीर" के नाम
से पुकारे जाते हैं।

तीसरे, माउन्टबेटन की सलाह पर पं. नेहरू एक जनवरी, १९४८ को कश्मीर का
मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में ले गए। सम्भवत: इसके
द्वारा वे विश्व के सामने अपनी ईमानदारी छवि का प्रदर्शन करना चाहते थे
तथा विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते थे। पर यह प्रश्न विश्व
पंचायत में युद्ध का मुद्दा बन गया।

चौथी भयंकर भूल पं. नेहरू ने तब की जबकि देश के अनेक नेताआें के विरोध के
बाद भी, शेख अब्दुल्ला की सलाह पर भारतीय संविधान में धारा ३७० जुड़ गई।
न्यायाधीश डी.डी. बसु ने इस धारा को असंवैधानिक तथा राजनीति से प्रेरित
बतलाया। डा. भीमराव अम्बेडकर ने इसका विरोध किया तथा स्वयं इस धारा को
जोड़ने से मना कर दिया। इस पर प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने रियासत
राज्यमंत्री गोपाल स्वामी आयंगर द्वारा १७ अक्तूबर, १९४९ को यह प्रस्ताव
रखवाया। इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत
का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा।
दूसरे शब्दों में दो संविधान, दो प्रधान तथा दो निशान को मान्यता दी गई।
कश्मीर जाने के लिए परमिट की अनिवार्यता की गई। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के
प्रधानमंत्री बने। वस्तुत: इस धारा के जोड़ने से बढ़कर दूसरी कोई भयंकर
गलती हो नहीं सकती थी।

पांचवीं भयंकर भूल शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का "प्रधानमंत्री" बनाकर की।
उसी काल में देश के महान राजनेता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दो
विधान,, दो प्रधान, दो निशान के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन किया। वे
परमिट व्यवस्था को तोड़कर श्रीनगर गए जहां जेल में उनकी हत्या कर दी गई।
पं. नेहरू को अपनी गलती का अहसास हुआ, पर बहुत देर से। शेख अब्दुल्ला को
कारागार में डाल दिया गया लेकिन पं. नेहरू ने अपनी मृत्यु से पूर्व
अप्रैल, १९६४ में उन्हें पुन: रिहा कर दिया।
 

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